Saturday, September 26, 2020

जीवात्मा और परमात्मा : A comparison

जीवात्मा और परमात्मा के संबंधों की व्यपाक चर्चा की गयी है ।उनकी उपमा एक ही वृक्ष पर रहने वाले दो पक्षियों से की गयी है ।यह वृक्ष शरीर है जिसमे आत्मा और परमात्मा दोनों निवास करते है । जीव अपने कर्मो का फल खाता है दूसरा उस वृक्ष के फल का उपभोग न करता हुआ केवल देखता रहता है ।
                     शरीर में रहने वाला जीवात्मा मोहवश सभी इंद्रीयों का उपभोग  करता हैै ।जबकि दूसरा केवल दृष्टा मात्र है । जब साधक उस प्राणरूप परमात्मा को जान लेता है , तब वह अपनी आत्मा को भी सब मोह बंधन तथा उपभोग से अलग करके परमाँत्मा के साथ योग स्थापित करके मोक्ष को प्राप्त करता है ।
                     वह ब्रह्म (परमात्मा) अत्यन्त महान है और दिव्य अनुभूतियों वाला है । वह सहज चिंतन की सीमाओं से परे है । उसके लिए सतत साधना करनी पड़ती है । वह कही दूर नहीं हमारे हृदय में विराजमान है और उसे मन और आत्मा द्वारा ही पाया जा सकता है ।निर्मल अन्तःकरण वाला आत्मज्ञानी उसे जिस लोक और जिस रूप में चाहता है वह उसी लोक और रूप में प्राप्त हो जाता है ।
                  ब्रह्मज्ञानी होने की इच्छा रखने वाले साधक को सर्वप्रथम अपनी सम्पूर्ण इंद्रियों का नियंत्रण करना पड़ता है ,तभी उसे आत्मा का साक्षातकार होता है । जब आत्मज्ञानी साधक उस निर्मल और ज्योतिर्मय ब्रह्म के परमधाम को पहचान लेता है तो उसे उसमे संपूर्ण विश्व समाहित होता दिखाई पड़ने लगता है ।निष्काम भाव से परमात्मा की साधना करने वाले ,विवेकी पुरुष ही इस नश्वर शरीर के बंधन से मुक्त हो पाते हैं ।
               आत्मज्ञान चेतना से युक्त है। वह साधक की पात्रता देखकर स्वयं को प्रकट कर देता है ।कामनारहित और विशुद्ध अन्तःकरण वाले साधक ही परम शांत रहते हुये परमात्मा को प्राप्त करने की क्षमता रखते हैं ।विवेकी पुरुष उस सर्वव्यापी सर्वरूप परमेश्वर को सर्वत्र प्राप्त कर उसी में समाहित हो जाते हैं।जिस प्रकार प्रवहमान नदियाँ अपने अपने नाम रूप को छोड़ कर समुद्र में विलीन हो जाती हैं वैसे ही ज्ञानी पुरुष नाम रूप से विमुक्त हो कर दिव्य परमात्मा में लीन हो जाते हैं ।
                   राग , द्वेष , मोह , माया से युक्त होकर जीवात्मा सदैव शोकग्रस्त रहता है किंतु दूसरा सभी संतापो से मुक्त रहता है । यह प्रकृति मायापति की माया है । वह अकेला (परमात्मा) ही सब शरीरो का स्वामी है ,तथा जीव को उनके कर्मों के अनुसार चौरासी लाख योनियों में भटकता रहता है ।
                  जो साधक तीनो गुणों से व्याप्त कर्मो को प्रारंभ करके उन्हें परमात्मा को ही अर्पित कर देता है उसके पूर्व कर्मो का नाश हो जाता है । उस निराकार परमेश्वर का कोई शरीर और इंद्रियां नहीं है । वह सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर और विशाल से भी विशाल है । वह सभी प्राणियों में अकेला एक ही तत्व है ।
                 अर्थात संपूर्ण प्राणियो में वह एक देव (परमात्मा ) स्थित है ।वह सर्वव्यापक संपूर्ण प्राणियो की अंतरात्मा , सबके कर्मो का अधीश्वर ,सब प्राणियो में बसा हुआ (सबके अन्तःकरण में विराजमान) सबका साक्षी , पूर्ण चैतन्य , विशुद्ध रूप और निर्गुण रूप है ।
             परमात्मा ने समस्त इंद्रियो का मुख बाहर की और किया हुआ है , जिससे जीवात्मा बाहरी पदार्थो से संसार को देखता है और सदा भोग विलास में उसका ध्यान रमा रहता है । वह अंतरात्मा की और नही देखता । यह अंतरात्मा ही ब्रह्म तक पहुचने का मार्ग है । जहाँ से सूर्यदेव उदित होता है और जहाँ जाकर अस्त होता है ,वहाँ समस्त देव शक्तियां विराजमान है । उन्हें कोई भी नहीं लाँघ पाता , वही ईश्वर है । इस ईश्वर को जानने के लिए सच्चे और शुद्ध मन की आवश्कता होती है ।
                         Hare Krishna